उन पलों में कुछ घुला था, थी हकीकत या धुंआ था
हम ने ये भी ना पूछा किसी से, मंजर वोह भला किसने बुना था
ठहरी थी जमी , आसमान ठहरा था
हवाएं भी ठिठकी, वक़्त भी अनमना था
ज़र्रा ज़र्रा कुछ इस क़दर फ़ना था, भीगा भीगा सा जैसे समां था
बाहें थी आबाद उनकी रूह समेटे अधरों पे उनके कहकहा सजा था
महफ़िलें आबाद रहेंगी उनसे सारे जहाँ में उनका मजमा था
उन लम्हों को जीते है अब भी हमें तो कुछ कहना भी मना था