उन पलों में कुछ घुला था, थी हकीकत या धुंआ था
हम ने ये भी ना पूछा किसी से, मंजर वोह भला किसने बुना था
ठहरी थी जमी , आसमान ठहरा था
हवाएं भी ठिठकी, वक़्त भी अनमना था
ज़र्रा ज़र्रा कुछ इस क़दर फ़ना था, भीगा भीगा सा जैसे समां था
बाहें थी आबाद उनकी रूह समेटे अधरों पे उनके कहकहा सजा था
महफ़िलें आबाद रहेंगी उनसे सारे जहाँ में उनका मजमा था
उन लम्हों को जीते है अब भी हमें तो कुछ कहना भी मना था
7 comments:
A mystifying piece of composition...unfurling but yet confined in a secret place.
It creates a pulchritudinous imagery.
I guess in place of >
भीगा भीगा था जैसे समां था
it would be this>
भीगा भीगा सा जैसे समां था
its awesome!
very nice...specially the last line ..wonderful :)
keep writing and sharing :)
its really a nice touchy poem ....
Your creations in Hindi leaves me speechless :)
Hope your pen keeps flowing with such beautiful creations throughout this year.
Wish you a Happy New Year!
ooo Makk... how yu been lately...long time no see!
@Shas
Thats all about how nice you are with me.
:)..Keep it up.
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