Saturday, 3 May 2014

सोच

कागज कि नाव जैसे उन लहरों पे  
 इठलाती, बलखाती, मदमस्त सी 

स्वछंद, बतियाती हवाओं से 
कुछ कहती कुछ सुनती 

अपने डर को छुपाती 
डूब जाने के उन्ही लहरों में 

जैसे ना चाहती हो
जाने कोइ 

धड़कता है दिल 
जोरों से कुछ इस तरह 

की साथ छोड़ देगा 
बस इस लहर के बाद 

और लहर दर लहर 
कुछ इसी तरह ज़िन्दगी 

गुजरती रही, हमने सोचा 
क्या पता था कि वोह हम थे जो रहे थे गुजर.... 




2 comments:

Unknown Wanderer said...

Ah..!
Gehrai ka ehsaas hota hai apki iss rachna mein :)

Unknown Wanderer said...

Ah..!
Gehrai ka ehsaas hota hai apki iss rachna mein :)

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