Friday 23 November 2012

हमें ही कुछ आदत सी हो चली है...


अल्फाज़ अक्सर कुछ कम पड़ जाते थे 
जब बयां हम करने की हसरत पाते थे 

होते थे इस क़दर कशमकश से रूबरू 
कि, अधर कुछ कह ही न पाते थे 

एक अरसा हो चला है इन लाम्हातों को 
हमारे दिल के डूबते उतरते ज़ज्बातों को 

कोई मिला जो कुछ समझ पता शायद 
ज़ख्म के अन्दर की वाहियात बातों को 

पर वक़्त न मिला उन्हें या न मिला मुकरर इल्म 
मरहम मिला बस नहीं था तो वो दिल 

जो करता नाज़ इस बेबसी पे हमारी 
और भर पाता जख्म  जो था रिस रहा 

यही ख्याल आता रहा ज़हन में हमारे 
और हर लम्हे को हम छोड़ते चले किनारे 

अनजान थे की छोड़ गर हमने ही दिया हमें 
न थामेगा कोई इस ज़नाज़े को हमारे 

न कहेंगे हम की ज़िन्दगी रुस्वां हो चली है 
वोह वहीँ है ज़हां हर खिलती कलि है 

तिल तिल हर पल मरने की 
हमें ही कुछ आदत सी हो चली है...


6 comments:

Amity said...

Hi Makk...

I wish I could understand this post of yours... :-)

Suyash Jain said...

Beautiful piece...loved the your choice words :)

Unknown Wanderer said...

Ab toh marham lag rha hai ..inshallah woh marham hamesha paas hi rahe apke :)

Makk said...

# Amity

Its my honor you came here. :)

Makk said...

# Suyash

Thanks dude.

Makk said...

# U W

hummm... Marham ahaan..:)

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