वीरानियाँ
उन तल्ख़ रास्तों की
जिनपे हम चल रहे हैं और थे कभी
डसती ना थी हमें इस क़दर
ना हम तनहा थे और ना रहगुज़र
रोज़ थी ईद और दिवाली हर लम्हे में छुपी
ईख सी थी चखने में, कमबख्त आँखों की वो नमी
तभी दिखा इक पड़ाव एक मोड़ पे
ठंडी बयार सी लगी थी उस छोर पे
इल्म हुआ फ़ना इस उम्मीद के जोर में
मंजिल है यहाँ हमारी लगाने लगा था उस पहर
हुआ सन्निपात तभी हमारी तन्द्रा पे
कहा रास्ते ने हंस कर, चले?
अवाक, मूक बस चल दिए फिर उस डगर
हँसते अपनी समझ और उनकी समझदारी पर
सुन चुके थे उनसे यही चंद अल्फाज़ ए जिगर
थे, हैं और रहेंगे हम ता उम्र यायावर,