Friday, 2 September 2011

यायावर

वीरानियाँ 
उन तल्ख़ रास्तों की 
जिनपे हम चल रहे हैं और थे कभी
डसती ना थी हमें इस क़दर 

ना हम तनहा थे और ना रहगुज़र 
रोज़ थी ईद और दिवाली हर लम्हे में छुपी 
ईख सी थी चखने में, कमबख्त आँखों की वो नमी 

तभी दिखा इक पड़ाव एक मोड़ पे 
ठंडी बयार सी लगी थी उस छोर पे
इल्म हुआ फ़ना इस उम्मीद के जोर में

मंजिल है यहाँ  हमारी लगाने लगा था उस पहर
हुआ सन्निपात तभी हमारी तन्द्रा पे
कहा रास्ते ने हंस कर, चले?

अवाक, मूक बस चल दिए फिर उस डगर
हँसते अपनी समझ और उनकी समझदारी पर 
सुन चुके थे उनसे यही चंद अल्फाज़ ए जिगर

थे, हैं और रहेंगे हम ता उम्र यायावर

5 comments:

Unknown Wanderer said...

I read this so many times and i am still not done with it..
Very thoughtful..the transition and flow is damn beautiful.

inn alfaazo mein ek anokha jadu chipa hai

P.S.-मंजिल है यहाँ हमारी लगाने लगा था उस पहर
is it lagne laga tha or has different meaning?

aativas said...

:-) well expressed.

Makk said...

#unknown wanderer

you are being nice with me.

Makk said...

#aativas

thank you...:)

Santosh Kumar said...

Very touching poem. Check my hindi poetry at http;/beloved-life.santosh.blogspot.com.

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